पथिक

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(यह एक मुंह देखने वाला दर्पण है , और इस पर की गई कला को नक्काशी कहते है )

इस पेंटिंग में कलाकार ने यह दिखाया है की एक महल की खिड़की से एक बंजारों की टोली को जाते हुए देख रहे है और यह टोली पहाड़ और पेड़ – पोधो के बीच में से जाती हुई बंजारों की यह टोली एक मन को मोहने वाला दृश्य प्रस्तुत कर रही है बंजारा या खानाबदोश (Nomadic people) मानवों का ऐसा समुदाय है जो एक ही स्थान पर बसकर जीवन यापन - करने के बजाय एक स्थान से दूसरे स्थान पर निरन्तर भ्रमणशील रहता है।जीवन भर घूमने के चलते बंजारा समुदाय सफर का पर्याय बन चुके हैं। बंजारों का न कोई ठौर-ठिकाना होता है, ना ही घर-द्वार। पूरी जिंदगी ये समुदाय यायावरी में निकाल देते हैं। किसी स्थान विशेष से भी इनका लगाव नहीं होता। एक स्थान पर यह ठहरते नहीं। सदियों से ये समाज देश के दूर-दराज इलाकों में निडर हो यात्राएं करता रहा है। बंजारे कुछ खास चीजों के लिए बेहद प्रसिद्ध हैं, जैसे नृत्य, संगीत, रंगोली, कशीदाकारी, गोदना और चित्रकारी। बंजारा समाज पशुओं से बेहद लगाव रखते हैं। अधिकतर बंजारों के कारवां में बैल होते हैं जिनमें वो अस्थायी घर बनाकर रखते हैं। इसमें रोजाना इस्तेमाल की जाने वाले सामान वे रखते हैं। दिनभर चलना और सूर्यास्त पर कहीं डेरा डालकर वहीं ये खाना बनाते हैं। शहर में आम तौर पर सड़क किनारे टेंट में या फिर खुले में अस्थायी तौर पर कुछ लोग रहते दिख जाएंगे। कई बार ये लोग 2 से 3 दिन तो कई बार हफ्तों ऐसे ही समय गुजार देते हैं। सड़क किनारे दिख रहे इन घुमंतू लोगों के साथ बैलगाड़ी या फिर कोई और जानवर भी दिख ही जाएगा। ये बंजारे लोग ऐसे ही पूरा जीवन घूमते हुए गुजार देते हैं। महिलाएं तो इन जगहों पर पूरा दिन रहती हैं, जबकि पुरुष मेहनत-मजदूरी कर कुछ पैसे इकट्ठा कर फिर अगले पड़ाव की ओर बढ़ जाते हैं। आम तौर पर बंजारा पुरुष सिर पर पगड़ी बांधते हैं। कमीज या झब्बा पहनते हैं। धोती बांधते हैं। हाथ में नारमुखी कड़ा, कानों में मुरकिया व झेले पहनते हैं। अधिकतर ये हाथों में लाठी लिए रहते हैं। बंजारा समाज की महिआएं बालों की फलियां गुंथ कर उन्हें धागों में पिरोकर चोटी से बांध देती हैं। महिलाएं गले में सुहाग का प्रतीक दोहड़ा पहनती हैं। हाथों में चूड़ा, नाक में नथ, कान में चांदी के ओगन्या, गले में खंगाला, पैरों में कडि़या, नेबरियां, लंगड, अंगुलियों में बिछिया, अंगूठे में गुछला, कमर पर करधनी या कंदौरा, हाथों में बाजूबंद, ड़ोडि़या, हाथ-पान व अंगूठियां पहनती हैं। कुछ महिलाएं घाघरा और लहंगा भी पहनती हैं। लुगड़ी ओढ़नी ओढ़ती हैं। बूढ़ी महिलाएं कांचली पहनती हैं।मध्य भारत के बंजारों में एक विचित्र वृषपूजा का भी प्रचार है। इस जन्तु को हतादिया (अवध्य) तथा बालाजी का सेवक मानकर पूजते हैं, क्योंकि बैलों का कारवां ही इनके व्यवसाय का मुख्य सहारा होता है। बैलों की पीठ पर बोरियाँ लादकर चलने वाले लक्खी बंजारे कहलाते थे। लोकगीत व लोकनृत्य बंजारों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। कई फिल्मों में भी बंजारों पर गाना फिल्माया जा चुका है। इनमें कई गीत तो सुपरहिट हुए हैं जो आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं। कई पुरानी फिल्में तो बंजारों की पृष्ठभूमि पर ही बनी है।कहते हैं कि जहां बंजारे अपना डेरा डालते थे, उनमें से कुछ स्थानों पर वे अपने धन को सुरक्षित रखने के लिए जमीन में गाड़ देते थे। बड़द बंजारे अधिकरतर अपना पैसा गाड़ कर रखते थे। किसी जमाने में बंजारे देश के अधिकांश भागों में परिवहन, वितरण, वाणिज्य, पशुपालन और दस्तकारी से अपना गुजारा करते थे। छत्तीसगढ़ के बंजारे बंजारा देवी की पूजा करते हैं, जो इस जाति की मातृशक्ति की द्योतक हैं। सामान्यत: ये लोग हिन्दुओं के सभी देवताओं की आराधना करते हैं। इस समय हम महल के एक खिड़की में खड़े है ,और एक बंजारों की टोली को आते हुए देख रहे है और एक मनमोहने वाले दृश्य की कल्पना कर रहे है ||