महावर

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(यह एक मुंह देखने वाला दर्पण है , और इस पर की गई कला को नक्काशी कहते है )

इस पेंटिंग में कलाकार ने भगवान कृष्ण और राधे की एक कहानी दिखाने की कोशिश की है , जिसमे द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण अपने महल के अन्दर बहुत ही मन-मोहक श्रृगार करके बैठे है और राधाजी भी सोलह श्रृंगार किये हुए बैठी है , और श्री कृष्ण राधिका जी को अपने हाथो से मोर पंख का उपयोग करते हुए राधा जी के पैरो में महावर लगा रहे है , जो उनके सोलह श्रृंगार के साथ –साथ उनके पैरो की सुन्दरता को भी बढ़ा रहा है | भारतीय साहित्य में सोलह शृंगारी (षोडश) शृंगार की यह प्राचीन परंपरा रही हैं। आदि काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों प्रसाधन करते आए हैं और इस कला का यहाँ इतना व्यापक प्रचार था कि प्रसाधक और प्रसाधिकाओं का एक अलग वर्ग ही बन गया था। इनमें से प्राय: सभी शृंगारों के दृश्य हमें रेलिंग या द्वारस्तंभों पर अंकित (उभारे हुए) मिलते हैं।अंगों में उबटन लगाना, स्नान करना, स्वच्छ वस्त्र धारण करना, माँग भरना, महावर लगाना, बाल सँवारना, तिलक लगाना, ठोढी़ पर तिल बनाना, आभूषण धारण करना, मेंहदी रचाना, दाँतों में मिस्सी, आँखों में काजल लगाना, सुगांधित द्रव्यों का प्रयोग, पान खाना, माला पहनना, नीला कमल धारण करना। महावर लगाने की रीति तो आज भी प्रचलित है, विशेषकर त्यौहारों या मांगलिक अवसरों पर। इनसे नाखून और पैर के तलवे तो रचाए ही जाते थे, साथ ही इसे होठों पर लगाकर आधुनिक "लिपिस्टिक" का काम भी लिया जाता था। होठों पर महावर लगाकर लोध्रचूर्ण छिड़क देने से अत्यंत मनमोहक पांडुता का आभास मिलता था। महावर लगाने की रीती युगों –युगों से चलती आ रही है , जैसे –आज के समय में मानव इसका उपयोग करते है वैसे ही युगों –युगों पहले हमारे देवी –देवता भी इसका प्रयोग करते थे | द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण ने साक्षात अपने हाथो से श्री राधे जी के चरणों में मोर पंख से महावर लगा रहे है, ऐसी कलाकार ने एक कल्पना की है |जिस महावर का प्रयोग हमारे भगवान् श्री कृष्ण करते थे ,उसी महावर का उपयोग ,इस युग में मानव करता है ,,,ये महावर त्यौहार की खुशिओ के साथ –साथ एक प्यार का प्रतीक भी है ||